(नरेंद्र तिवारी \’एडवोकेट\’) एक प्रतिष्ठित समाचार-पत्र में बरसों पहले मथुरा से एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी,जिसका शीर्षक था \’भावनाओं का व्यापार,शुध्द लाभ का बाजार\’ इस रिपोर्ट में संवाददाता द्वारा गोवर्धन के सप्तकोशी परिक्रमा मार्ग पर बैठे उन भिखारियों को बताने की कोशिश की गई थी जो अपने दर्द का प्रदर्शन करते है। रिपोर्टर के अनुसार भिक्षुक अपनी चोटों का प्रदर्शन करते है। यह चोट दया पैदा करती है। इसी दर्द से यह भिक्षुक अपनी कमाई करता है। रिपोर्टर का सीधा उद्देश्य चोट दिखाकर,दया पैदा करना ओर परिक्रमा करते श्रद्धालुओं को अपनी जेब मे हाथ डालने को विवश करना बताना रहा है।
मथुरा ही नहीं भावनाओं का यह व्यापार भारत मे पग-पग पर व्याप्त है। इस भावनात्मक ब्लैकमेल के खेल में हमारी राजनीति एवं मनोरंजन जगत में अनेकों सफलतम प्रयोग हो चुके है, जो अब भी है। राजनीति में आजादी के बाद से गरीबी हटाओ का भावना प्रधान नारा लगाया जा रहा है। सत्ता के शीर्ष से अब भी गरीबी हटाओ का नारा बुलंद है। यह अलग बात है कि सत्ता का शीर्ष नेतृत्व अपने अमिरिकी मेहमान को देश की गरीबी नहीं दिखाना चाहते है। इस हेतु उचित प्रबंधों के माध्यम से गरीबो की बस्ती को ढँक दिया जाता है। खैर नेता को चायवाला दिखाया जाना भी तो भावनाओं का व्यापार हीं है। अभी बंगाल में प्रदेश प्रमुख को लगी चोट की मार्केंटिंग की जा रहीं है। चोट पर वोट भी घावों को दिखाकर मतदाताओं को भावुक करने की कोशिश भर ही है। अभी जो सबसे भावना प्रधान नारा है वह है देश खतरे में है। बरसो से देश को खतरे में बताकर राजनैतिक भावनाओं को उभारने की कोशिशें की जाती रहीं है। ये महज भावनाओं को बेचने की राजनीति भर ही नजर आता है। किसी को हिंदुत्व पर खतरा मंडराता दिखता है तो किसी को इस्लाम खतरे में नजर आता है। धर्म को खतरे में बताकर जाने कितने नेताओं ने अपने वर्तमान और भविष्य को सुरक्षित कर लिया है।
मनोरंजन जगत में भी भावनाओं के उभार के तरीके बरसो से अपनाए जा रहें है। भावना प्रधान फिल्में अक्सर अच्छे व्यापार की ग्यारंटी होती है। फिल्मी दुनिया,ओर टीवी धारावाहिकों की दुनियां का जमीनी हकीकतों से कम ही वास्ता रहता है,किन्तु सतही तौर पर भावनाओं को उभारने की कला में माहिर निर्माता निर्देशक दर्शको की जेब ढीली करने में कामयाब हो ही जाते है। टीवी पर चलने वाले नृत्य एवं गायन के आयोजनों में इमोशन का दिखाया जाना उसके विज्ञापन का प्रकार है। रेलवे स्टेशन पर गीत गाती एक गरीब महिला रानू मण्डल को काफी प्रचारित किया गया। रानू मण्डल की लाचारी गरीबी इस टीवी शो की कमाई का प्रमुख कारक बन गयी थी। एक नृत्य के शो में माधुरी दीक्षित की फैन का नृत्य कम उसकी गरीबी को अधिक बताने के प्रयास किया गया। गीतकार,कवि संतोष आनन्द जी का रुआंसा चेहरा मनोरंजन जगत टीआरपी बढाने का माध्यम भर नजर आता है। इस प्रमुख गीतकार का अभावमयी जीवन हमारी सरकार और कला पंसद समाज के लिए सोचनीय विषय है।
दरअसल हम भारतीय अत्यधिक भावना प्रधान है। हमारे सामने भावना प्रधान नारे गढे जाते है। विज्ञापनों में भावनाओं का मिश्रण किया जाता है। जिसका उत्पाद की वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं होता है। एक कोल्ड ड्रिंक्स कम्पनी है कोको कोला उसका एक विज्ञापन खूब चर्चित हुआ था, जिसमे सऊदी अरब में एक पिता अपनी पुत्री को कार चलाना सिखाता है। चाबी लगाते ही कार थोड़ी दूर चलकर बन्द हो जाती है। महिला कार में रखे कोको-कोला ड्रिंक्स को पीती है और कार सपाटे से दौड़ने लगती है। यह विज्ञापन यह बताना चाहता है कि उक्त कोल्ड ड्रिंक्स के सेवन भर से आत्मविश्वास में कई गुणा वृद्धि हो जाती है। उक्त विज्ञापन में व्यवहारिकता कम और भावनाएं अधिक है। दरअसल ऐसा ही हमारे साथ हो रहा है। हम जीवन की वास्तविक दिक्कतों से इतर बनाई गई काल्पनिक या यूं कहें विज्ञापनी दुनिया के बहकावे में जल्दी आ जाते है।
वर्तमान हालातो में देश एवं समाज के सामने शिक्षा ,स्वास्थ्य, रोजगार,पानी, बिजली ,सड़क की महती आवश्यकता है। महंगाई आसमान छू रहीं है। दो वक्त की रोटी की जुगाड़ काफी कठिन हो गयी है। इन बुनियादी जरूरतों से देश का एक बड़ा हिस्सा महरूम है। गरीबी और बेरोजगारी के आकंड़े चौकाने वाले है। देश के तमाम राजनैतिक दलों को भावनाओं के व्यापार से मुक्त होकर एक वैज्ञानिक राजनैतिक व्यवस्था कायम करनी चाहिए। जिसमें वास्तविकता अधिक हो काल्पनिकता एव विज्ञापन कम हो। पांच राज्यो के चुनाव में राजनैतिक दलों को विज्ञापनी कम वास्तविक अधिक बनना चाहिए। जनता को वास्तविक दुनियाँ से परिचित कराना ही सच्चा राष्ट्रधर्म है।
