दिलीप मिश्रा

बच्चों की अच्छी शिक्षा हर माता-पिता का सपना होता है… बच्चों को निजी स्कूल में पढ़ाना आजकल आम धारणा बन चुकी है… गरीब से गरीब माता-पिता भी अपना पेट काटकर बच्चों को निजी स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं… हाल ही में दसवीं के रिजल्ट ने इस धारणा को झुठला दिया है… कम से कम देवास में तो यह साफ हो गया की मोटी फीस वसूलने वाले निजी स्कूल शहर के सरकारी स्कूल उत्कृष्ट विद्यालय के आगे बौने है… ऐसा पहली बार नहीं हुआ… पिछले तीन-चार वर्षों से ऐसा देखने में आ रहा है… बच्चों को भारी भरकम फीस वाले निजी स्कूलों में पढ़ाने की धारणा यहां थोथी नजर आ रही है… यह बात देवास में शिक्षा की स्थिति को लेकर पिछले तीन-चार वर्षों के विश्लेषण के आधार पर कही जा सकती है…। पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने सरकारी स्कूलों के उन्नयन के लिए काफी बेहतर प्रयास किए हैं… और उसमें सफलता भी पाई है… मॉडल स्कूल और स्कूल आफ एक्सीलेंस इसके बेहतर उदाहरण है…।
फिर भी बड़े लोग अपने बच्चों को बड़े स्कूल में पढ़ाएंगे ही… इसके भी कई कारण है… प्राइवेट स्कूल की आलीशान इमारत होती है… लग्जरी बसों में बैठकर बच्चे स्कूल जाते हैं… बच्चों की बढ़िया ड्रेस होती है… स्कूल में बच्चों का सुविधाजनक सिटिंग सिस्टम होता है… स्कूल संचालक भी बड़ा व्यक्ति होता है… वहां अगर कुछ नहीं होता तो वह है सहजता से एडमिशन… एडमिशन के लिए लगती है एप्रोच… और लगता है डोनेशन… जी हां यह सभी बातें स्टेटस सिंबल को रिप्रेजेंट करती हैं…।
फॉलो करने का सिस्टम भी पुराना है… एक समय था जब ज्ञान और चरित्र फॉलो किए जाते थे… आज फॉलो करने का रूप बदल चुका है… इसका असर बच्चों की शिक्षा को भी प्रभावित कर रहा है… आज अमूमन देखने में आता है कि… उनका बच्चा बड़े स्कूल में पढ़ता है… तो हमारा क्यों नहीं? अरे.. उनसे तो हमारी हैसियत अच्छी है… भला फिर ऐसा कैसे हो सकता है..? की उनका बच्चा प्राइवेट स्कूल में पढ़े …और हमारा सरकारी…? कहीं रिश्तेदारी में… या सामाजिक कार्यक्रम में… जाना हुआ और किसी ने पूछ लिया… बच्चा किस स्कूल में पढ़ता है…? तो कैसे जवाब देंगे?
सवालों की यही उधेड़बुन हमें सही निर्णय लेने से रोकती रहती है… जग जाहिर है सरकारी स्कूलों में भवन जरूर अनाकर्षक होता है… व्यवस्थाएं थोड़ी लचर हो सकती हैं… बच्चों का स्टैंडर्ड वहां जरूर वैसा मेंटेन नहीं किया जा सकता… जैसा निजी स्कूलों में किया जा सकता है… फिर भी एक बात तो माननी ही होगी… कि वहां बच्चों को पढ़ाने वाली फैकल्टी निर्धारित मापदंडों के अनुसार होती है… सरकारी स्कूल में शिक्षक का B.Ed या D.Ed होना अनिवार्य होता है… जबकि निजी स्कूलों में ऐसी बाध्यता नहीं होती… आपने भी कई निजी स्कूल ऐसे देखे होंगे… जहां छोटी क्लास के बच्चों को पढ़ाने वाले… कई या कुछेक कह लें, शिक्षक या शिक्षिका… ऐसे होते हैं… जिन्होंने कॉलेज का मुंह तक नहीं देखा होता… यह सब जानते हुए भी हम सरकारी स्कूलों को निजी स्कूलों से कमतर मानने की भूल करते रहते हैं…।
आज 90 फ़ीसदी लोग इस बात को लेकर परेशान रहते हैं कि लोग क्या कहेंगे..? उनका परेशान होना भी स्वाभाविक है… आजकल आम चलन हो गया है… जब किसी भी बच्चे से कोई मिलता है तो उसका नाम पूछने के बाद… दूसरा सवाल यही कॉमन होता है कि किस स्कूल में पढ़ते हो? स्कूल के नाम से ही हम बच्चे की शिक्षा, ज्ञान… और उसके पढ़ाकू होने या ना होने का अंदाज लगाते हैं… यह सबसे बड़ी वजह है जो हमें बच्चों की शिक्षा को लेकर दिल से निर्णय नहीं लेने देती…।
इसकी मूल वजह है… तो वह है हमारा \”दृष्टिकोण\” संसार की भलाई-बुराई के इतने मायने नहीं जितने कि हमारे निज \”दृष्टिकोण\” के….। हमें हमारे दृष्टिकोण को उदार दृष्टिकोण बनाने की महती आवश्यकता है… ताकि बच्चों के लिए ना सिर्फ स्कूल…. बल्कि किसी चीज…. या व्यक्ति… का चयन करने में उसे समग्रता से देखें… निरीक्षण करें… विशिष्टताओं को जांचे… और फिर निर्णय करें।